इस वंश की स्थापना वासुवेद ने 73 ई०पू० में की।
कण्व शासक भी शुंगों की भाँति ब्राह्मण ही थे। हर्षचरित से जानकारी मिलती है कि स्त्री व्यसन के कारण देवभूति को अमात्य वसुदेव ने रानी वेश धारिणी दासी पुत्री द्वारा मरवा दिया।
इस वंश का शासन मात्र 45 वर्ष रहा, जिसमें 4 शासकों ने राज्य किया।
इसके कार्यकाल में मगध साम्राज्य का विस्तार मात्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों तक रह गया।
इस वंश का तीसरा शासक नारायण कण्व एक अयोग्य एवं निर्बल शासक था।
कण्व वंश ने ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना में भारी योगदान दिया।
27 ई०पू० में इस वंश के अंतिम शासक सुशर्मा की हत्या कर उसके सेनापति सिमुक ने इस वंश के शासन का अंत कर दिया।
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संभवत: उनका राज्य मगध एवं उसके आसपास तक ही सीमित था। परन्तु मगध के शासक होने से इस वंश के शासकों को सम्राट् की उपाधि प्रदान की गई।
पुराणों में चार कण्व राजाओं का उल्लेख आया है जिन्होंने यथाक्रम मगध पर शासन किया- वासुदेव (9 वर्ष), भूमिमित्र (14 वर्ष), नारायण (12 वर्ष), तथा सुशर्मण (10 वर्ष)।
इस तरह कुल 45 वर्ष के शासन-काल में कण्वों ने किसी क्षेत्र में कोई विशेष कीर्ति अर्जित नहीं की। माना जाता है कि 30 ई.पू. में आन्ध्र भृत्यों (सातवाहन) ने इन्हें उखाड़ फेंका।
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